एक शिक्षक के मनोभाव*
कभी सोचा न था
चॉक डस्टर छोड़
ऑनलाइन पढ़ाऊँगी
उन मुस्कुराते बच्चों से
इतना दूर हो जाऊँगी
कभी सोचा न था
ऑनलाइन पढ़ाऊँगी।
रोज लेती हूँ लाइव क्लास
लेकिन मजा नहीं आता पढ़ाने में
न ही मिलती है संतुष्टि।
जिस फोन से दूर रहने की करती थी अक्सर बात
उसी के पास रहने को समझाऊँगी
कभी सोचा न था
ऑनलाइन पढ़ाऊँगी ।
लॉकडाउन में ढील होते ही
कभी-कभी जाने लगी हूँ स्कूल
लेकिन वह स्कूल नहीं
सिर्फ इमारत है बिना बच्चों के
सूनी बैंचें, खाली मैदान,
सुनसान आँगन, कोरिडोर विरान।
इस हालत में भी कभी स्कूल आऊँगी
और मास्क लगाकर पढ़ाऊंगी
कभी सोचा न था
ऑनलाइन पढ़ाऊँगी ।
जिज्ञासु बच्चे आज भी प्रश्न पूछते हैं
लेकिन जिन से मैं कुछ पूछती हूँ
वे नेटवर्क प्रॉब्लम कह क्लास छोड़ देते हैं।
बिना उन्हें डांटे
अपने आपको ही समझाऊँगी
कभी सोचा न था
ऑनलाइन पढ़ाऊँगी।
सिर में रहता है अक्सर दर्द धीमा धीमा
मन भी विचलित है
कभी वीडियो बनाती हूँ
कभी पीडीएफ बनाती हूँ
फिर भी लगता शिक्षण अधूरा।
अपने आप को इतना विवश पाऊँगी
कभी सोचा न था
ऑनलाइन पढ़ाऊँगी ।
उन मुस्कुराते बच्चों से इतना दूर हो जाऊँगी
कभी सोचा न था
ऑनलाइन पढ़ाऊँगी ।
वो स्कूल जो अध्यापक के फ़ोन भी
स्कूल में आने नही देते थे
आज वो फ़ोन ही हमारी
अध्यापक होने की बुनियाद हुआ
कभी सोचा भी न था कि
बच्चों को इस फ़ोन से ही पढ़ाऊंगी
कभी सोचा न था
ऑन लाइन पढ़ाऊंगी
डॉ मंजु सैनी
गाजियाबाद