*एक बूढ़ी नदी*
नदी अब बूढ़ी हो गई है ।
याद करती है वो अपने पुराने दिनों को।।
जब वह समाज को नवजीवन देती थी ।
बिना किसी भेद – भाव के जब वह सबके लिए बहती थी ।।
कितने बटोही अपनी प्यास बुझाकर तृप्त होते थे।
किनारे बैठ कर ठंडी हवा का लुत्फ लेते थे।।
कई बार तो वो रात में भी सो नहीं पाती थी ।
आधी रात में कितनों को वो पार उतारती थी ।।
हंसो के झुंड कलरव करते थे।
उनके गान कितने मधुर लगते थे।।
खेतों को हरा – भरा रखती थी ।
क्योंकि उनके लिए वो खेतों तक जाती थी ।।
जितना दे सकती थी सबको दिया।
अपने लिए कभी कुछ नही लिया ।।
देते – देते अब वह थोड़ी हो गई है।
नदी अब बूढ़ी हो गई है ।।
अब वह बाट जोहती है,पर कोई आता नहीं।
जैसे अब किसी का उससे कोई नाता नहीं ।।
कई बार रात में नींद खुल जाती है, आहट से ।
मां है उसे लगता है,बच्चा कहीं प्यासा ना चला जाय
उसकी चौखट से ।।
आज भी जब कोई ,उसका पानी पीता है ।
तो वो खुश होकर हंसती है ।
बूढ़ी मां जैसे लाड करती है ।।
उसकी भी स्थिति ,आज के समाज सी हो गई है ।
आज के बूढ़े मां – बाप सी हो गई है ।।
जब तक दे सकते थे, बच्चों ने निचोड़ लिया ।
आज जब उन्हें जरूरत है ,एक किनारे छोड़ दिया ।।
✍️ प्रियंक उपाध्याय