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7 Oct 2018 · 3 min read

एक पिता का प्यार अपने पुत्र के लिए

नन्ही सी आंखें और मुड़ी हुई उंगलियां थी।

यह बात तब है जब दुनिया मेरे लिए सोई हुई थी।

नंगे से शरीर पर नया कपड़ा पहनता था मुझे होली दिवाली की समझ नहीं थी।
लेकिन फिर भी मेरे साथ मनाता था।

घर में खाने की कमी थी।
फिर भी
मेरे लिए FD में पैसा जोड़ रहा था।
उसके खुद के सपने अधूरे थे।
और मेरे लिए सपने बुन रहा था।
यह बात तब की है जब दुनिया मेरे लिए सोई हुई थी।

वक्त कटा साल बना,
पर तब भी सबसे अनजान था।
पर मैं फिर भी उसकी जान था।

बिस्तर को गीला करना हो या रातों को रोना,
एक बाप ही था जिसे मैंने उसका सोना छीना था

सुबह होने तक फिर गोद में खिलाता…,
झूलें को हिलाता…,
फिर दिन में कमाता..,.
फिर शाम में चला आता… कभी खुदसे परेशान …
तो कभी दुनिया का सताया था…।
एक बाप ही था जिसने मुझे रोते हुए हंसाया था।

अल्फाजों से तो गूंगा था मैं,
वह मेरे इशारे समझ रहा था।
मैं इस बात से हैरान हुँ खुद आज,
कि कल वह मुझे किस तरह पढ़ रहा था।

पर वह मेरी हर ख्वाहिश को पूरा कर रहा था
और मैं भी उसके लाड प्यार मैं अब ढलने लगा था…।
घर से वह अब निकल ना जाए
उसके कदमों पर अब मैं नजरें रखने लगा था…।
मुद्दें तो हजार थे बाजार में उसके पास..।
और कब ढल जाएगा सूरज उसको इसका इंतजार था।

और मैं भी दरवाजे की चौखट को ताकता रहता था।
जब होती थी दस्तक
तो दरवाजे से झांकता रहता था।
तब देखकर उसकी शक्ल में दूर से चिल्लाता था।
जो भी इशारे – सारे मुझे आते थे….।
उससे उसको अपने करीब बुलाता था..।.
वह भी छोड़-छाड़ के सब कुछ
मुझे अपने सीने से लगाता था।

कभी हवा में उछालता था…।
कभी करतब दिखाता था।
मेरी एक मुस्कान के लिए
कभी हाथी कभी घोड़ा बन जाता था।
और सो सकूं रात भर सुकून से
इसलिए पूरी रात एक करवट मे गुजारता था।

पर अब बचपन भी चुका था ।
और मैं अब बड़ा हो चुका था।
बातें कुछ भूलने लगा था।
खुद गर्मी में सोना हो
पर मुझे पंखे नीचेसुलता था।
या फिर दिवाली पर खुद पुराने कपड़े पहनना
और मुझे नये कपड़े पहनाना
या फिर सोते हुए बुखार में माथे पर रखी ठंडी पट्टी करना हो
या फिर मेरी हर जिद के आगे झुक जाना
वह बचपन था वह गुजर गया

और मैं इस नजम का कोई नाम रख नहीं पाया…
क्योंकि मैं बाप को एक लफ्ज़ में बता नहीं पाया

खुदा की एक मूरत होता है।
बाप जो लफ्जों में ना भुना जाए।

जो कलमों से ना लिखा जाए वह होता है ।
बाप जो रोते हुए को हंसा दे
और खुद को मजदूर बनाकर तुमको खड़ा कर दे
वो होता है बाप
अर्जुन सिन्हा kaluram ji ahirwar652@gmail.com

मैं अर्जुन सिंह इस कविता का लेखक में नहीं हूं लेकिन मुझे यह कविता अच्छी लगी मैंने इसे अपनी आईडी पर पोस्ट की फिर कह रहा हूं इस कविता का लेखक में नहीं हूं मेरा उद्देश्य है इस कविता को आप तक पहुंचाना मेरी भावनाएं भी बिल्कुल ऐसी है इसीलिए मैंने कविता को अपना बनाना चाहा लेकिन यह कविता मेरी नहीं है जिस भी भैया यह कविता लिखी है बहुत ही सुंदर लिखी है आप एक बहुत अच्छे लेखक हैं आप को मेरा प्रणाम आप की पंक्तियों को मेरा सलाम Arjun.sinha 9589965922

Language: Hindi
1 Like · 525 Views
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