एक प्रश्न
कान्धे पर फटा हुआ सा
कूड़े का बोरा लटकाए।
कटे-फटे वसनों में
मुश्किल से अपना तन छिपाए।
शीत में वह ठिठरता गर्मी में सहता तीव्र तपन है।
कूड़े-कचरे से कुछ चुन लेता
रूककर बोरे में रख लेता।
इधर- उधर निगाह घूमाता
धीरे -धीरे आगे बढ़ जाता।
दिन-प्रतिदिन यही उसका जीवन-क्रम है।
स्कूल को हसरत से देख
पढने की इच्छा दबाए।
जरा सी देर खेलने को
जी उसका भी ललचाए
मैले कुचले बोरे में सिमटा उसका बचपन है।
भूख से त्रस्त, नंगे पैर
उम्र से अधिक बोझ उठाए।
अबोध मुख पर खिंची
व्यथा की अनगिन रेखाएँ।
कर जाती चुपके से व्याकुल मेरा मन है।
मानवाधिकार की वकालत
करता स्वार्थी समाज।
खेल रहा उनके जीवन से
जाने या अनजाने,?
क्यूँ नहीं लौटाता उसका बचपन यह एक प्रश्न है?
प्रतिभा आर्य
37 चेतन एनक्लेव फेज- 2
जयपुर रोड़, अलवर(राजस्थान)