एक नई दुनिया
एक नई दुनिया
हम उस “एक नई दुनिया” की तरफ
अग्रसर हो रहे हैं
जहां
इंसान तो हैं पर
इंसानियत शून्य में झांकती नज़र आती है
हम उस “एक नई दुनिया” का
सुस्वप्न देख रहे हैं जहां
हर कोई व्यस्त है
अपनी ही दुनिया में
एक दूसरे से अनजान
शायद एक उपकरण “मोबाइल” की छाँव में
हम उस “एक नई दुनिया “ की तरफ
बढ़ रहे हैं
जहां
मानव तो है
पर मानवता खुद को ही
ढोने पर मजबूर है
संवेदनाओं के अंत का
एक ज्वर सा आ गया है
लहरों की भागमभाग है
पर छोर कहाँ है? पता नहीं
हम उस “एक नई दुनिया “ की तरफ
बढ़ रहे हैं
जहां
परिवार तो हैं
पर परिवार का हिस्सा होते चरित्र
रिश्तों की परिभाषा से
अनजान हैं
“वसुधैव कुटुम्बकम” को झुठलाते
ये चरित्र यूं ही विचरण कर रहे हैं
परिवार शब्द के दंभ के साथ
हम उस “एक नई दुनिया “ की तरफ
बढ़ रहे हैं
जहां
धर्म के ठेकेदारों का
धर्म को ही अधर्म रुपी
राजनीति का अखाड़ा बना दिया है
धर्म से उठता विश्वास
शायद राजनीति में
विश्वास जगाने लगा है
हम उस “एक नई दुनिया “ की तरफ
बढ़ रहे हैं
जहां
मंदिरों एवं मस्जिदों में
मन्त्रों एवं अजान का आलाप सुनकर
जागने वाला मनुष्य
अब मोबाइल की
रिंगटोन पर जागने लगा है
मंत्र एवं अजान स्वयं के अस्तित्व पर
सोच में हैं
मंदिर की घंटियों का स्वर भी
अब सुनाई नहीं देता
न ही अजान की आवाज
हम उस “एक नई दुनिया “ की तरफ
बढ़ रहे हैं
जहां
प्रकृति के अनुपन दृश्यों का
अवलोकन करने की
मन में उत्सुकता तो है
किन्तु हमने स्वयं के
अप्राकृतिक प्रयासों से
प्रकृति के अनुपन दृश्यों को
द्रश्यविहीन कर दिया है
हम उस “एक नई दुनिया “ की तरफ
बढ़ रहे हैं
जहां
आज की युवा पीढ़ी
सदियन पुराने सुसंस्कृत
विचारों को तिलांजलि देने
की सलाह देकर
बुजुर्गों को जीने की
आधुनिक राह दिखाने का
असफल प्रयास करती
नज़र आ रही है
हम उस “एक नई दुनिया “ की तरफ
बढ़ रहे हैं
जहां
शिक्षा , अपने मूल उद्देश्य से
पीछा छुड़ाती नज़र आ रही है
और
स्वयं के पेशेवर होने का
दंभ भारती नज़र आ रही है
हम उस “एक नई दुनिया “ की तरफ
बढ़ रहे हैं
जहां
देवालय शून्य में झांकते
नज़र आ रहे हैं
भगवान् अपने भक्तों के
इंतजार में बाट जोह रहे हैं
और
दूसरी ओर
“बार” और “पब” में
“मस्ती की पाठशाला “ में लोग
जिन्दगी के वास्तविक सत्य
की खोज में प्रयासरत हैं
साथ ही जीवन के असीम
आनंद की खोज के प्रयास में भी
हम उस “एक नई दुनिया “ की तरफ
बढ़ रहे हैं
जहां
बच्चे के पैदा होते ही
एक ऐसी पाठशाला की ओर
धकेल दिया जाता है
जहां से शायद वह
“पी एच डी” करके ही
घर वापस आयेगा
या फिर कहें तो
एक बड़े पैकेज के साथ
आखिर
जीवन के किस पथ पर
अग्रसर हैं हम सब
शारीरिक रूप से अस्वस्थ
मानसिक रूप से अपरिपक्व
आधुनिक विचारों की
गठरी पीठ पर लादे हुए
सुसंस्कृत, सुसभ्य समाज की
संकल्पना को
अपने अप्राकृतिक कृत्यों से
साकार करने की एक असफल
कोशिश करते हुए
आखिर किस दुनिया की ओर
अग्रसर हो रहे हैं हम ?……………