“एक थी महुआ”
“एक थी महुआ”
गाँव आते ही बस अड्डे से घर तक जाने वाले रास्ते पर किशन दादा की झोँपडीपड़ती है..और चौराहे पर ही उनकी बहादुर बेटी के नाम का बड़ा पत्थर भी लगाथा ,जो गाँव वालो ने गाँव की उस बेटी की याद मॆं लगवाई थी ,गाँव के प्रधान जीसे कहकर । मैं तो जब भी गाँव आती थी तो रास्ते मॆ किशन दादा से बात किये बिना चलीजाऊँ ऐसा आज तक कभी नहीँ हुआ….और फ़िर किशन दादा भी तो माँ से मेरे आने कीबात सुनते ही रास्ते पर आँखें लगाये अपनी झोन्पडी के बाहर ही बैठे हुये मिलतेथे ।
कोई रिश्ता ना होते हुये भी एक अपनापन जुडा था दादा के साथ और ये अपनापनसिर्फ मेरे साथ ही नहीँ बल्कि पूरे गाँव के साथ जुड़ा था ।
आज गाँव आते ही किशन दादा और उनकी बेटी महुआ की याद आते ही आँख नम हो आयी औरएक-एक पल चलचित्र की भाँति आँखों के सामने आ-जा रहा था ।
किशन दादा अपने हाथों से छाज बनाकर बेचते थे गाँव-गाँव जाकर।
किशन दादा के हाथों से बने छाज गाँव वाले खुद तो खरीदते ही थे और अपनेरिश्तेदारों के घर भी भेजते थे ।
किशन दादा के अलावा कोई बाहर से छाज बेचने वाला यदि कभी भूले से इस गाँव मेंछाज बेचने आ भी जाता , तो कोई भी गाँव वाला उससे छाज नहीँ खरीदता था !
किशन दादा ना सिर्फ छाज बनाकर बेचते थे , बल्कि पूरे गाँव मानों प्यार बाँटतेथे !गाँव मॆं किसी के घर शादी-ब्याह ,जनमदिन ,जसूठन या कोइ भी वार-त्यौहार होताथा तो किशन दादा और उनकी पत्नी दोनोंदिन- रात मेहनत मज़दूरी करने से कभी पीछे नहीँ हटते थे और ना ही कभी ठोकबजाकर उन्हे मज़दूरी ही तय करनी पड़ती थी ।
जिसने जो दे दिया उसी में खुश हो जाया करते थे दोनों पति-पत्नी ।
वो गाँव भर के बच्चों कॊ बहुत लाड़-प्यार करते थे..बच्चो कॊ अनेक कहानी-किस्सेभी सुनाया करते थे ,कभी-कभी तो घोड़ा बन बच्चों कॊ घुमाते भी थे अपनी पीठ परबैठाकर और बच्चे भी किशन दादा कॊ देखते ही खाना-पीना सब भूल कर उनकेइर्द-गिर्द ही फिरते रहते जब तक कि दादा उन्हें कहानी न सुना दें।
चालीस की उम्र पार करने के बाद उनकी झोँपडी में एक नन्ही सी बच्ची कीकिलकारी की गूंज सुनाई पड़ी तो गाँव भर ने खूब कपड़े और खिलौने किशन दादा कीनन्ही बेटी कॊ दिये।
अब तो किशन दादा की खुशी का कोई ठिकाना ना रहा..वो दिन-भर अपनी बेटी कॊ खूबलाड़-प्यार करते और उसकी बाल-सुलभ बातें बताते नहीँ थकते थे ।
मगर ये खुशी भी ज्यादा दिन कहाँ टिक पायी ! भाग्य का लिखा कौन टाल सकता हैभला ?भाग्य ने जहाँ इतने सालों बाद उनके जीवन मॆ बच्चे का सुख दिया, वहीँ कुछ दिनबाद ही उनकी पत्नी कॊ मौत के क्रूर हाथों ने उनसे छीन लिया…।
अब तो किशन दादा अपनी बेटी के माँ और बाप दोनों खुद ही थे.
एक दिन दादा अपनी बेटी के साथ हमारे घर आये और माँ से कहने लगे…”बहू जी मैं आज ही पाठशाला मॆ अपनी महुआ का दाखिला करवा के आया हूं ,तमकहो तो…तो…मेरी महुआ स्कूल के बाद कभी-कभार यहाँ घर जाया करेगी…अब मुझेगाँव मॆ पैन्ठ भी करनी होती है और ये अकेली झोन्पडी मॆं रहेगी तो मुझे इसकीचिंता लगी रहेगा ” ।
“हाँ….हाँ दादा कोई परेशानी नहीँ , तुम बेफिक्र होकर महुआ को यहाँ छोड़ करजा सकते हो…और कभी-कभी ही क्यों हर रोज़ वो स्कूल से यहीं आ जाया करेगी !पढ़ाई के साथ ही घर के काम भी सीख जायेगी इसी बहाने !”
महुआ अब स्कूल से हर रोज़ हमारे घर ही आ जाती थी.मेरा भी बड़ा मन लगता उसके साथमॆं !
किशन दादा जब भी हमारे घर आते तो एक ही बात कहते थे..”बस !बहू जी दिन-रात मेहनत करके ज्यादा से ज्यादा छाज बनाता हूँ और आस-पासके गाँवो मॆ छाज बेचने चला जाता हूँ ,दो पैसे कमाउंगा तो अपनी महुआ के अच्छेसे हाथ पीले भी कर पाऊँगा…अब तो बस इसी की चिंता लगी रहती है हर बखत “।
माँ दादा की बात पर हमेशा कहा करती “दादा अभी तो तुम्हारी महुआ छोटी हैबहुत ,क्यों अभी से इतनी चिंता-फिकर करते हो…भला बेटियाँ भी कभी किसी कीरुकी हैं क्या ब्याहे बिना ? तुम देखना गाँव वाले मिलकर कैसा ब्याह करेंगेतुम्हारी महुआ का और फ़िर महुआ सिर्फ तुम्हारी ही बेटी नहीँ, पूरे गाँव की बेटीहै दादा ।”
समय बीतता गया और दादा का स्वास्थ्य भी अब पहले सा नहीँ रहा था ,दिन तो जैसेपंख लगाकर उड़ रहे थे….महुआ भी पंद्रहवें साल की दहलीज पर पाँव रख चुकी थी,दादा कभी कोई कमी नहीँ रखते उसकी देखभाल में…लगता था कि अपने हिस्से काखाना भी वो महुआ कॊ ही खिला देते हों !महुआ कॊ देखकर कोई भी ये नहीँ कह सकता था कि वो एक गरीब बाप की बेटी है औरझोपडी मॆ पली बढ़ी है , एक तो माँ उसके पहनने लिये हमेशा अच्छे कपड़े हीबनवाती थी और ऊपर से वो थी ही इतनी प्यारी और सुंदर …..!भरे बदन की ,सांवले रंग और तीखे नयन नक्श वाली महुआ अपनी उम्र से भी दो सालबड़ी लगती थी देखने मॆं !कमर पर पड़ी उसकी लम्बी चोटी तो उसकी सुंदरता मॆ और भी चार चांद लगा देती थीमानों….महुआ अब आठवीं पास कर चुकी थी और वो आगे पढ़ना चाहती थी …माँ ने भीउसे आगे पढ़ाई करवाने का मन बना लिया था !स्कूल के बाद माँ के साथ घर के कामों मॆ हाथ बंटाने और पूरे घर कॊ सम्भाल कररखने मॆं भी बड़ी होशियार थी महुआ …!स्कूल मॆं पढ़ाई के साथ-साथ खेलकूद मॆं भी हमेशा आगे ही रहती थी ॥
जितना लाड़-प्यार मेरी माँ मुझे करती थी महुआ कॊ भी वो ऐसे ही ,उतना ही लाड़प्यार करती थी! कभी-कभी तो लगता था कि महुआ किशन दादा की बेटी न होकर इसी घरकी बेटी हो , क्योंकि माँ के साथ-साथ पापा और मै खुद भी उसे बहुत अपना माननेलगे थे और महुआ भी स्कूल से आते ही घर का सारा काम सम्भाल लेती थी !मेरी शादी के बाद माँ अकेली पड़ जायेंगी अब मैं भी इस चिंता से मुक्त थी..।आजकल दादा के थोड़ा बीमार रहने की वजह से कभी-कभार महुआ इतवार के दिन गाँवमॆ उनके साथ जाने लगी ,क्योंकि अब दादा ज्यादा मेहनत मज़दूरी नहीँ कर पातेथे..।जो कुछ कमाई होती अब गाँव मॆ लगने वाली पैन्ठ से ही हो जाती थी…..गाँव भीज्यादा दूर नही था तो दादा पैदल ही पहुँच जाया करते थे…उस शाम भी दादा महुआ के साथ पास के गाँव से लौट रहे थे…रास्ते मॆ कुछगुंडे महुआ को छेड़ने लगे…किशन दादा से ये सब देखा नहीँ गया और उन्होने उनसबको खूब उल्टी-सीधी सुनायी ताकि वो गुण्डे डर कर वहाँ से चले जायें….लेकिनउन पर तो जैसे शैतान सवार था और उन्होने बूढे किशन दादा की खूब पिटायी कीजिससे दादा बेहोश हो गये और वो गुण्डे महुआ की इज्जत लूटने की कोशिश करने लगे, मगर महुआ हार मानने वाली लड़की नही थी..उसने उन दरिंदो का डटकर सामनाकिया….किसी की आँखो मॆ रास्ते मॆ पड़ी धूल डालती तो किसी कॊ उठाकर ईंट तो कभीछाज ,जो भी हाथ आये मार रही थी…लेकिन अकेली उस सुनसान रास्ते मॆं उन दरिंदोका सामना करती रही ,महुआ अपनी अंतिम साँस तक लड़ती रही…..उसने अपनी जान गँवादी लेकिन अपनी इज्जत नहीँ लूटने दी…आखिर मॆ उन इंसान रूपी जानवरों ने महुआकी जान ही ले ली….!जैसे-तैसे गाँव वालो कॊ ख़बर लगी तो वो दोनों बाप-बेटी कॊ गाँव लेकर आये, किशनदादा कॊ थोड़ा होश आया तो देखा झोपडी के बाहर उसकी महुआ की लाश पडी है….लोगआपस मॆ उसकी बहादुरी की बातें कर रहे थे…”कितनी हिम्मत वाली निकली किशन की बेटी…अपनी जान दे दी पर इज्जत पे आँच नहीँआने दी”!”हां सही कह रही है तारा की माँ तू ,बेचारी बिन माँ की बच्ची ने आखिर क्याबिगाडा था उन राक्षसों का जो बच्ची की जान ही ले ली ” !तभी तीसरी औरत रुंधे हुये गले से कहने लगी “भगवान ऐसी बहादुर बेटी सबको दे जोमरते मर गई पर अपनी और पूरे गाँव की इज्जत पर तनिक भी आँच न आने दी ” वहाँखड़ी महिलाये आपस मॆं एक-दूसरी से बतिया रही थी सबकी आँखों से आँसू बह रहेथे और माँ वो तो एकटक पागलों की जैसे महुआ की मृत देह कॊ देखकर आँसू बहाये जारही थी ..!
दादा के होश मॆ आने का इंतजार था सबको….आखिर कैसे बाप के बगैर उसकी बेटी काअंतिम संस्कार कर सकते थे… ।दादा होश मॆ आकर भी होश में नहीँ थे…..वो अपना मानसिक संतुलन खो चुके थे…महुआ की लाश के पास बैठकर बडबडाने लगे….”ए महुआ चल उठ जल्दी सेघाघरा-चुन्नी पहर…ले तू कहती थी न ब्याह मॆं घाघरा-पहरेगी …चल झोपडी मेंदिवा बाल दे….अँधेरा हो आया”!
कहकर वो झोपडी के भीतर से एक लाल रंग का घाघरा और चुन्नी हाथ मॆ लिये महुआ कॊपकड़कर हिलाने लगे….कितना सोती है तू महुआ ?तेरी माँ न कभी इस झोपडी म अँधेरा ना रखा तू भूल गई क्या ? ए महुआ उठ न इब…उठ महुआ उठ…..”।
दादा अपने होश मॆ नही थे तभी तो उनकी आँखो मॆ आँसू का नाम भी नही था….बस ! बार-बार अपनी लाडली महुआ के शव को अपने दोनों हाथों से कंधे से पकड़करएक ही बात दोहराते….”महुआ उठ ना…..अरी कब तक सोत्ती रहगी….पगलीउठ….महुआ…क्यों अपने बूढे बाप कू सता री है……चूल्हा-चौका भी नहीँ कियाअभी तक तूने….बावली..ये कोई टेम है सोने का…॥”
गाँव वालो ने बहुत कोशिश की कि वो खुलकर रोयें…ताकि दिल पर पड़ा सदमा कुछ तोकम हो..पर ! वो तो लगतार पागलों की तरह महुआ कॊ जोर-जोर से आवाज़ दे रहेथे..आज पूरे गाँव की आँखो से दादा कॊ देखकर आँसू बह रहे थे….।
कैसी बदकिस्मती है ये ! कि बेटी दुनिया से सदा के लिये चली गई और बेचारा बूढ़ाबाप उसे कंधा तक देने की हालत में भी नहीँ ..!
“ये ईश्वर का नियम भी बड़ा ही अजीब है तेरा…. कहीँ किसी का भरा-पूरा परिवारहोता है और कहीँ कोई बच्चों की किलकारी तक को भी तरसता है…बड़ा जुल्म कियातकदीर ने बेचारे किशन पर “वहाँ खड़े एक बुजुर्ग ने दूसरे बुजुर्ग से कहा , दूसरे बुजुर्ग ने भी उसकीहाँ में हाँ मिलाते हुये कहा “हाँ भाई !बिल्कुल सही कह रहा है तू , पहलेतो बेचारा बच्चों को तरसता रहा…बुढापे में औलाद भी हुई तो घरवाली चलबसी…उस दुख को बेटी के लाड़-चाव में भूल गया तो अब वो बेटी भी…..” कहकरअपनी गीली आँखें अपने गमछे से पोंछने लगा !”
सविता वर्मा “ग़ज़ल”