” एक थी बुआ भतेरी “
” एक थी बुआ भतेरी ”
सारे जन ध्यान से मीनू की बात सुनना
पहले एक बुआ भतेरी हुआ करती थी,
शर्म लिहाज नहीं करती बिल्कुल भी वो
पूनिया को झगड़े के लिए उकसाती थी,
ना काम करना ना ही कोई काज करना
बस चुगली फोड़ने में मस्त रहा करती थी,
शायद मीनू के कर्म में कोई कमी रह गई
तभी बुआ भतेरी की शक्ल देखनी पड़ी थी,
डाट लो चाहे कितना ही फटकार दो उसको
नहीं होऊंगी परेशान बस ये कहा करती थी,
मीनू ने आज मुझे ये कहा आज मुझे ये कहा
सबको चक्कर लगाकर यही बताया करती थी,
तुझे उसने ये बोला, तूने उसको कुछ नहीं बोला
बस एक दूजे के सिर फुड़ाने में खुश रहती थी,
वरिष्ठ नागरिक का ज्यादा ही वहम था उसको
सबको हमेशा बस बाबू ही समझा करती थी,
ऐसा कहती कि मीनू से कम बोलना ही सही है
लेकिन बिना बोले मुझसे रुक ही नहीं पाती थी,
रब ही जाने क्या लगाव था उसको पूनिया से
मैं नहीं लडूंगी मीनू से सबको कहा करती थी,
क्या करूं जिससे मीनू समान बनूं ये कहकर
मेरे बराबर होने को हमेशा ललायित रहती थी,
मैं खिलाड़ी हूं तो खेलने को भी जाने लग गई
कैसे समझाएं उसको पागलपंती जो करती थी,
चुल्लू भर भी दिलचस्पी नहीं मेरी उस औरत में
ना जाने क्यों मुझसे दूर नहीं जाना चाहती थी,
हालात हुए ऐसे देखते ही उसको सिर दर्द होता
लेकिन वो चिपको आंदोलन ज्यों चिपक गई थी,
घर में चाहे कितने ही पैसे पड़े रहें उसके लेकिन
चव्वनी खातिर हमेशा हाय तौबा मचाए रखती थी,
मुर्गी फस जाए जिसको लपेट सकूं आज कहकर
मुफ्त का समान पाकर अनायास मुस्कुरा उठती थी,
ये सब कहां का घटनाक्रम है पूनिया नहीं बताएगी
लेकिन ऐसी बुआ जिंदगी में पहले नहीं देखी थी।