एक जवानी थी
एक जवानी थी
वो भी चली गई
गरूर था
सौंदर्य भी मेरे महफ़िल के
प्रियतमा के महक
याद आती है अभी
आंसू भी रोने लगती
फूट-फूटकर अभी
इश्क़ मोहब्बत
कौन पूछें !
सबकुछ था
अब क्या कहें ?
सुध-बुध खो दिए मैंने
झुरियाँ निकल आई
मेरे बदन के
कुरूपता ही मेरी
शृंगार रसमयी है
अब यौवन है ही नहीं
और अब
किसे फूल खिलाऊँ
या किसे पुष्प सजाऊँ
न ऊर्जा से परिपूर्ण
रक्तरंजित लाश कहो
रुग्णता मेरे तट पे
खलबली मचा रही
निमंत्रण है क्या !
इंतकाल का
देखो-देखो
यम भी खड़े है
मेरी चैतन्य के
पहरा दे रहे….
वो और चित्रगुप्त
प्रस्थान करता अब
इस नगरी से सदा
पता है
भूल जाएंगे सब
मेरे अस्तित्व भी
एक दिन मिट जाएंगी
क्योंकि न कोई
दास्तां है वीरभूमि की
न ही मेरे कोई कीर्ति
आया था ऐसे ही
जाता भी ऐसे ही
हो सके तो अगले
जन्म में
अस्तित्व भी रहेगी
और मेरी कीर्ति भी