*एक चूहा*
एक चूहा
दिनभर बिल के अंदर
छिपकर – रहकर
निकला बाहर
रात में
घरवालों के सोने के बाद ।
उसे नजर आया
रोटी का टुकड़ा
सोचने लगा:
मालिक ने दी रोटी
तो लोहे के पिंजरे के अंदर
क्या करें/ क्या न करें
दिनभर का भूखा तो था ही
पेट में चूहे भी कूद रहे ही थे ।
खोज निकाला
रोटी पाने का रास्ता
फिर टूट पड़ा
दांत के मोह बिना,
छेड़ा लटकते हुए रोटी को
तार हिली और पिंजरे का शटर गिरा
भूख तो मिटी नहीं
बंधकर/ बंद होकर रह गया
लोहे के सीखचों के अंदर
अपराधी की तरह ।
सोचता रहा रातभर
सोते जागते
रोटी के बारे में,
होते ही सबेरा
मालिक ने देखा अपना शिकार
बिना पूछे रोटी खाने के जुर्म में/
एक अपराधी ।
मालिक ने कर दिया आजाद
बुलाकर एक कुत्ता ।
लेकिन जरा नहीं विचलित हुआ वह
काम आया साहस और हौंसला
चलाकी से भाग निकला अलबत्ता
अवाक रह गया कुत्ता ।
दूर जाकर छिपकर
देखता रहा कुत्ता और
सोंचता रहा
भूख के बारे में
हल के बारे में ।
**************************”*************** मौलिक रचना घनश्याम पोद्दार
मुंगेर