एक चिडियाँ पिंजरे में
एक पिंजरे की
मजबूर चिडियाँ सी
वो ,,
अपने पंखों को
सिकोड लेती है
फडफडाने से पहले।
वो किसी कुएँ की
मेंढकी सी
रोक लेती है
अपने फुदकने
वाले भाव को ,
और बस गोल- गोल
घूमती रहती है।
मजे से अपने कूप में ।
वो एक पोखर की
मछली सी ,
आँखे बंद कर
भी ,
बता सकती है
अपने तैरने की सीमा,
इस तरह,
अपने घरौदे की
खिड़की से
बस झाँक कर
देख लेती है
उन्मुक्त पंछियों को,
बादलों को,
हवाई जहाज को ।
सडक पर हो हो करके
दोस्तो संग
ताली बजाकर
हंसते पुरुषों की आवाज सुनकर
तुरंत, खिड़की बंद कर देती है।
कि, कहीं
वो भी
बगावत न कर बैठे ।
इस तरह
उसके भीतर
सुरक्षित रहती है
एक चिडिया
एक मछली ।
और,
एक मेढकी।
समाप्त
कविता पूनम पांडे