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11 Sep 2018 · 1 min read

एक चिंगारी बहुत है

एक गीतिका …!
————————–
(आधार छंद रजनी- मापनीयुक्त मात्रिक
(२१२२ २१२२ २१२२ २)
समांत- अता, पदांत- है ।
०००००००००००००००
रिमझिमा कर घन झरे मन मुग्ध करता हैै ।
ये लगे बैरी गरज कर जब बरसता है ।।

टूट जो बिखरे, नहीं‌ कहते उसे माला ।
मोतियों को जोड़ चुन-चुन हार बनता है ।।

ले रहे निर्णय मगर इतना नहीं सोचा ।
क्यों किसी के ये हृदय में आग भरता है ।।

एक चिंगारी बहुत है राख करने को ।
जल स्वयं भी जायगा तू क्यों न डरता है ।।

कुछ दिनों के बाद फिर से द्वार आयेगा ।
उस दिवस का तू न दिल में ध्यान धरता है ।।

हाथ में डंडा थमाया कर भला सबका ।
क्यों न उसको थाम समता भाव रखता है ।।

फैल करके आग बन जाये न दावानल ।
जानकी को मृग न छल हर बार सकता है ।।

-महेश जैन ‘ज्योति’
***

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