एक उड़ान, साइबेरिया टू भारत (कविता)
•एक उड़ान, साइबेरिया टू भारत •
भीषण शीत
कंपकंपाती ठंड से
जब चतुर्दिक खगों के झुंड
विह्वल हो उठते हैं
हिम की तासीर से
उड़ती हूॅ अदम्य साहस और
उत्साह के साथ।
निकलती हूॅ दूर की यात्रा पर।
साथ होते हैं मेरे बचपन के साथी
जिनके साथ बीता बचपन
पर्वतों, जंगलों, मनभावन
माटी में
भिगोती रही नन्हें जल
कणों में अपने पर
मेरा घर साइबेरिया,
मैं हूॅ चिड़िया।
उड़ती हूॅ नीले आकाश में
बचती हूॅ गिद्धों से
दृष्टि गड़ाए बाजों से
कभी ऊपर कभी नीचे
आत्मबल है उस असीम सत्ता की
जिसने दिया
मैं हूॅ चिड़िया।।
आंधियों से लड़ना पड़ता है
तूफानों से बचना पड़ता है
गहरे सागर को बिना थके
पार करते हुए
तब कहीं पूर्ण होती है
स्वर्णिम भारत की पावन धरा
पर पांव रखने की लालसा।
हर साल आती हूॅ
कुनबे के साथ
चमकते हैं माथे
आसमानी बाजों के संघर्ष
से क्षणिक मिलता विश्राम
मीठे सरोवर पर भी गिद्ध दृष्टि
गड़ाए बाजों से बचानी पड़ती है
जिंदगी।
भारत की सुहानी हवा
नैसर्गिक आभा।
क्या पाप है उन्मुक्त गगन में
उड़ना?
बिन थके निरंतर उड़ना
ऊंची चोटी, गहरे सागर को
लांघकर
दूर देश में जाना
बना ठिकाना मीठे जल को
जहां सरोवर??
जहाॅ का पानी पिया??
मैं हूॅ चिड़िया।।
**© मोहन पाण्डेय ‘भ्रमर ‘
चित्र साभार नवभारत टाइम्स गूगल