एक इल्तज़ा कज़ा से …
कहीं से कुछ तो मिल जाए इशारा,
ऐ सितमगर तकदीर ! जो तेरा ।
मैं क़ज़ा से ही कर लूं इल्तजा के ,
थाम ले आकर अब वोह दामन मेरा ।
खुश्क है जिंदगी और मेरे लब भी ,
आबे-हयात नहीं मुझे ज़हर देदो ।
मेरी उम्मीदों की शम्मा बुझ रही है,
तेरा भरा न हो जी बढ़ा दे अन्धेरा ।
जी में तो आता है कहीं खो जायुं मैं ,
ख़ाक हो जाए मेरा ये वजूद सारा ।
अब बहुत थक चुकी हूँ मैं दोस्तों!
सोती हूं मैं कफन औढ़ा दो जरा।