एकाकी एकलव्य—-
——————————-
रात्रि के निविड़ अंधकार में
वन के एकांत छोर में
वृक्ष की एक सद्यः युवा हुए डाल पर
खुद से विनोद करता
अंगूठे के जख्म सहलाता हुआ
तम से प्रकाश की
भयभीत आकांक्षा पैदा करता हुआ मन में
अकेला एकलव्य।
शिखर की यात्रा का अंत करके
शुन्य पर आकर ठहरा एकलव्य।
आहत अस्तित्व से जूझते हुए
आँखों के अश्रुओं को
निगलता एकलव्य।
रात्रि के हर प्रहर में
घटना क्रम को याद करता
उस विलक्ष्ण क्षण को
अस्वीकार करने पर आमदा
उद्यत होता रहा।
योद्धा के स्वप्न से टूटकर
आखेटक मात्र हो जाने की नियति
अस्वीकार करने को चाहता एकलव्य।
एक लक्ष्य से च्युत हुआ सा
खुद का खुद विरोध करता एकलव्य।
खुद ही खुद पर झुंझलाता एकलव्य।
परिश्रम और औद्योगिता में
स्वयं को तलाशता एकलव्य।
प्रतिभा को पहचान हेतु
सम्राज्यवादियों के संरक्षण की अनिवार्यता को
प्रश्नों से घेरता एकलव्य।
‘स्यात् महानता की लालसा से
अंतर्मन था लिप्त मेरा’
गहरे मन से सोचता हुआ एकलव्य।
घटना को क्रमशः स्मरण करता
उस अधम क्षण के छल को
सत्येतर मानता एकलव्य।
नैतिक पतन की पराकाष्ठा के
अनैतिक वर्ग समूह को
विपन्न वर्ग की
दृढ़ता,कठोरता,कर्मठता व सरलता का धर्म
नहीं कर सकता परास्त,
ऐसा सोचता एकलव्य।
मेरा समर्पण महानता की मेरी लालसा का
निंदनीय अधोपतन था-
ऐसा मानता एकलव्य।
राज के लोभ व शासन की
विलासी आकांक्षा ने
एक बड़े बुद्धिशील,विनम्र,श्रमी वर्ग को
बनाया किया है भृत्य
ऐसा देखता एकलव्य।
अंगूठे का मेरा विच्छेदन
गुरु के लिए मेरा आत्म-समर्पण नहीं
घेरकर करना था मेरा मान-मर्दन।
वनों,घाटियों,चोटियों,
कन्दराओं,गुफाओं में बिखरे
एकलव्यों को आखेटक से योद्धा बनना है।
मेरे एकांत की इस पीड़ा को
तुम्हारे मन के अस्तित्व में मुझे
प्रेषित करना है।
——————————————–