एकांत
डॉ अरुण कुमार शास्त्री * एक अबोध बालक **अरुण अतृप्त
एकांत
जिंदगी से उसकी मुझको ये सबक मिला ।
वो जैसा दीखता था वैसा तो नही मिला ।
पंछियों सा चहचाहता फुदकता जो मिला ।
घर के अँधेरे अकेले कमरे में वो ही शख्स
मुझको खुदा कसम सुबकता हुआ मिला ।
मैं अपनी उदासियों में गमतर परीशांन था ।
गोया कि पूरी कायनात में मुझसा नहीं मिला ।
ये राज मुझपे समझिये बस उसी रोज़ खुला जिस ।
रोज़ मिरे काँधे रखके सर वो रोता हुआ मिला ।
सुबकियों के बीच मुझसे वो सब कुछ कह गया ।
गुलाबी डोरे लिए मिचमिची आँखों से वो ।
कुछ कुछ मेरी आँखों में खोजता मिला ।
तकलीफ मिरि सच मानिये इस कदर बढ़ गई ।
पेशानी मिरि पसीने से जब तर बतर हुई ।
मुँह में मेरे नमकीन सा पानी उतर गया ।
माथा क्या चूमा उसका मेरी आँख भर गई ।
कहने को यूँ तो बोलिये मेरे पास था भी क्या ।
टूटा खिलौना उसका क्या मैं जोड़ भी सका ।
अज़ब अजाब से अपने खुदा से लड़ पड़ा ।
यकीं मानिये
अज़ब अजाब से अपने खुदा से लड़ पड़ा ।
राहत मिले उसको था इस बात की जिद्द पे मैं अड़ा ।
जिंदगी से उसकी मुझको ये सबक मिला ।
वो जैसा दीखता था वैसा तो नही मिला ।
पंछियों सा चहचाहता फुदकता जो मिला ।
घर के अँधेरे अकेले कमरे में वो ही शख्स ।
मुझको खुदा कसम सुबकता हुआ मिला ।