‘एकला चल’
भर मनुज मत तू कभी,
नयनोँ मेँ जल,
यदि न कोई साथ दे,
मत हो विकल।
एकला चल, रे व्यथित मन,
एकला चल।।
हो रहे तुझ सँग, भले,
कितने ही छल।
बन रहे रिपुओं के होँ,
कितने ही दल।
एकला चल, रे व्यथित मन,
एकला चल।।
सुन रहा हो बात कोई भी नहीं,
स्वयं पर, विश्वास को, रखना अटल,
बैठ कर हरगिज़ न यूँ,
तू हाथ मल।
एकला चल, रे व्यथित मन,
एकला चल।।
आस्थाएं होँ भले ही डिग रहीं,
हर परिस्थिति मेँ मगर, रहना अचल।
आज है दुख यदि,
तो सुख आएगा कल।
एकला चल, रे व्यथित मन,
एकला चल।।
कर्म करना ही, मनुज का धर्म है,
एक दिन मिलना ज़रूरी, इसका फल,
प्रस्फुटन “आशा” का, प्रतिपल हो रहा,
है कहाँ नैराश्य मेँ, अब इतना बल।
एकला चल, रे व्यथित मन,
एकला चल…!
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