एकलव्यी भारत
मैं था घट-घट पर पड़ा हुआ, भोजन मिलता था सडा हुआ
नित कटु वचन मैं सुनता था, चरणों की धूल मैं बनता था
विद्या की ललक लिए मन में, मैं घूम लिया उस उपवन में
सुखो की चाह लिए मन में, भटका कांटो पर जीवन में
कोई पास ना मुझे बिठाता था, मैत्री का न हाथ बढाता था
जब जब मैंने पलके खोली मैं, सदा अकेला पाता था
जीवन में ना जिसके मृदु श्रृव्य, हाँ मैं हूँ वही एकलव्य
जिसके बाणों की नोक लक्ष्य, हाँ मैं हूँ वही एकलव्य
जब-जब मैंने उत्साह किया, मुझको सबने ही हताश किया
न गुरु ने मुझे विद्या दीनी, अपनों ने भी उपहास किया
किन्तु मेरे अन्दर की लौ, बढती ही गयी चढ़ती ही गई
बिन गुरु हृदय रुग्णालय है, पर जीवन तो विद्यालय है
जीवन से मैंने सीख लिया, बिन गुरु के मैंने ज्ञान लिया
प्रतिपल जीवन अनुसन्धान लिया, प्रकृति का हर विज्ञान लिया
अब मैंने यह सम्मान लिया, ब्रम्हाण्ड मूल भी जान लिया
मेरी प्रतिभा के बल पर ही, संसार ने भी यह मान लिया
हाँ मैं ही वह एकलव्य हूँ, जिसके तरकश के बाण प्रखर
चंद्रमा के भेद बतलाते है, मंगल को भी छू जाते है
मैं भील तो था पर वीर भी था, नूतन अध्ययन में प्रवीण भी था
भारत हूँ मैं एकलव्य हूँ मैं, अन्दर से कितना भव्य हूँ मैं
मैं आगे बढ़ता जाऊँगा, विपदाओं को सिखलाऊँगा
सम्पूर्ण विश्व से आगे बढ़ता, एकलव्य हूँ मैं दिखलाऊँगा
सत्येन्द्र कुमार
खैरथल, जिला -अलवर, राजस्थान