ऋषि कपूर – एक अभिनेता या सिनेमा
ऋषि कपूर, ये नाम आज जब सुना की अब हमारे बीच नहीं रहा तो हृदय की अनंत गहराइयों के कोने कोने से एक दर्द सा फूट पड़ा जो कब मेरी आंखों का आंसू बनकर बरबस ही पलकें भीगी कर गया पता ही नहीं चला और जब मैं भावविह्वलता की मुद्रा को क्षणभंगुर करके अपने संवेगों को एकाग्रता में लाया तो पता चला कि शायद मैं गमगीन था। मैंने अंतरात्मा को टटोलते हुए पूछा – क्या सच में तू रोया? सहसा ही मेरा छायारूप गौरव (एक काल्पनिक नाम) मेरे सामने अलादीन के चिराग की तरह प्रकट हुआ पर वो जादुई नहीं था महज़ मेरे सवालों का तुष्टिकरण(appeasement) करने वाला जिनी था वो। मैं हैरत में था खुद की छाया देखकर क्या ये मेरा अस्तित्व स्वरूप है या कोई क्षदमरूप। खैर क्या फ़र्क पड़ता है मैंने अपने प्रश्न की पुनरावृत्ति की और उत्तर की ताक में अपने ही स्वरूप यानि कि छायारूप को उत्तर की बाट में कौतूहलवश निहारने लगा।
उसने प्रत्युत्तर में कहा – जिसे तू अभिनेता समझ रहा है वास्तव में वह खुद में ही सिनेसंसार था। एक अप्रतिम अनूठा कलाकार जिसने सिनेजगत को परिभाषित किया नाकि हिंदी सिनेमा ने उसे। एक जोकर था वो जो शायद जीता भी था तो अभिनायरूपी रस पल – पल में अंगड़ाइयां लेकर अभिनय शब्द को इज्जत देता था और श्रेष्ठ अभिनेताओं की कतार में यदि पहले नंबर पर ना कहूं तो दूसरे नंबर पर कहना भी बेईमानी सा प्रतीत होता है।
मैंने टोकते हुए कहा – वो सब तो ठीक है परन्तु ये बताओ मैंने दर्द क्यों महसूस किया उनके परलोक सिधारने पर?
छायारूप ने मेरी जिज्ञासा शांत करते हुए कहा – दर्द महसूस उसके लिए होता है जो मन के तारों की अंतर्तम गहराइयों में किसी ना किसी रूप में बिंधा हुआ होता है और तूने तो पूरा बचपन ही गुज़ारा है ऋषि कपूर की फिल्मों को देखते हुए। और आज भी जब तू उनके बारे में सोचता है तो तेरी बचपन में देखी हुई फिल्मों के चित्र तेरी आंखों के सामने उभरते हैं जो तुझे रोमांच से भर देते हैं और तुझमें तेरा ही आइना दिखाकर उन चित्रों की जीवंतता को सजीवता में बदल कर तुझको तेरे आस्तित्व से परिचित करवाते हैं। तू बचपन में भी गदगद हो जाता था और आज भी, क्यूंकि अभिनय संसार को ऋषि सर ने इतना जीवंत कर दिया था कि उनकी हर फिल्म के किरदार में तू खुद जा डूबता था कभी मजलूम बनकर तो कभी गरीबों का मसीहा बनकर, कभी मजनू बनकर तो कभी अमर अकबर एंथनी बनकर, कभी प्रेम रोगी तो कभी कुली बनकर। मेरा नाम जोकर से खुद का परिचय देता वो नन्हा सा ऋषि, शर्मा जी की नमकीन की शूटिंग करता हुआ चल बसा जिसने अपनी अभिनय कला से हजारों जीवन जिए और अपने ऑडियंस को भी अपने माध्यम से काल्पनिक जीवन जीने का मौका दिया और लोगों के होठों पर बरबस ही मस्कानें बिखेरी। शायद अभी वो जिंदा रहते तो ना जाने कितने जीवन और जीते। तेरी आंखें शायद इसीलिए भर आयी कि तूने कभी ना कभी बचपन में ही सही ऋषि सर को जिया है अभिनय किया है और उनकी अंतिम विदाई पर तेरी आंखें भर आना ही उनका इनाम है और उन्हें तब तक जिंदा रखेगा जब तक तेरी सांसों की शाम नही होती। अपूर्णनीय क्षति है हिंदी सिनेमा की ही नहीं वरन् उनके हर एक ऑडियंस की और उनके अस्तित्व की। भारत माता के एक लाल की जिसने देश ही नहीं वरन् विदेशों में भी अपनी अभिनय कला का लोहा मनवाया और भारत का नाम रोशन किया। हम किस रूप में अपने देश की सेवा करें इसको परिभाषित करना बहुत कठिन हो जाता है। कुछ लोगों के लिए वह महज़ एक हीरो थे परन्तु अपने आप में वह भारत माता के एक सच्चे सपूत थे जिसने भारत को अभिनय जगत में बॉलीवुड के माध्यम से एक नई पहचान दिलाई। भारत की आत्मा क्या सिर्फ कृषि प्रधान ही है कलाप्रधान नहीं। यदि है तो ऋषि कपूर अभिनय जगत में संगीतजगत के तानसेन से कम नहीं थे जिन्होंने भारत के गौरव को मर्यादित किया।
मैं – स्तब्ध सा बैठा हुआ अश्रुपूरित आंखों से एक बार फिर से शून्यता में विलीन हो गया और मेरा छायारूप मुझमें।
अश्रुपूरित श्रद्धांजलि ऋषि कपूर साहब भौतिक शरीर से तो मिल नहीं पाया पर शायद कभी मिलूंगा आकर आत्मिक शरीर से।
आपका चहेता दर्शक