ऊँघता चाँद
ऊँघ रहे हो चाँद गगन में, क्या मजबूरी ऐसी?
राग अलाप किये बैठे हो, क्या जग है विद्वेषी?
इतनी भोली मति है तेरी, उमर रही बचपन की,
रात-रातभर जाग रहे तुम, आस लगी किस धन की?
चंदा, राजदुलारे तुमको, कौन रहस्य जगाता,
गूढ़ छिपाता विह्वलता में, या तारक उकसाता?
समझो, जो न पहेली, शह ले लो तारकगण का भी,
जाग रहे तारे नभ में, मदद करेंगे वे तेरी।
रक्तमयी, विधु तेरी आँखें, हो जाती हैं जब-तब,
सुर्ख़ नैन लिए फिरते हो, तुम अर्द्ध निमग्न निशाकर।
रजनीकर, भ्रांति कहो, किस जनम की पाप कमाई,
या डसता विष व्याल कोई, दंत में भरे रुबाई?
चंद्र! सुना तुम मन इकतारे, के संज्ञा की वाणी,
कैसी तेरी प्रीति निशा से, निशि-निशि होत सयानी?
बसे भ्रांतिहर, जन-मन में, चंद आसक्ति युगों तक,
अमर सुधा, निहार नयन, शाश्वत बन सकें युगों तक।
सुधागेह, लुप्त करो बस, संशय मेरे मन बैठी,
ऊँघ रहे हो चाँद गगन में, क्या मजबूरी ऐसी?
…“निश्छल”