“उस पार जाना चाहती हूँ”
शब्दों पर तैरना चाहती हूँ,
खोलते हैं मन के कपाट,
भींड़ में कातर दृष्टि से निहारते हैं,
कुछ नहीं कहते हुए सब कुछ बयां करते हैं।
तभी तो खेना चाहती हूँ
कलम के चप्पुओं से।
किन्तु डरती हूँ सहमती हूँ,
अथाह समन्दर की बूंदें,
भेद न दे मेरी कश्ती को।
भरने न लगे मेरे शब्दों की नौका,
डूबने ना लगूं इस महासमुद्र में,
उस पार जाना चाहती हूँ,
हाँ! शब्दों पर सवार होकर।
कभी निःश्वास सी तो कभी उमंग से भरी,
विचित्र सी कल्पनाओं में डूबी,
अन्तर्मन को उड़ेल देने की धुन,
न चाहते हुए भी सब कुछ कहने की चाह।
तभी तो उकेरना चाहती हूँ,
कलम की तूलिका से,
अनगिनत रंगों के इन्द्रधनुषी क्रीड़ाएं,
श्वेत सपाट शब्द-खटोला पर,
किन्तु डरती हूँ सहमती हूँ,
बदरंग न कर दे बेवजह के रंग,
फैल ना जाए कोई रंगमेरी नौका पर,
अनलंकृत सी इस महासमुद्र में,
उस पार जाना चाहती हूँ,
हाँ! शब्दों पर सवार होकर।
…निधि…