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24 Aug 2020 · 1 min read

उसके हिस्से का…

उसके हिस्से का ज्यादा खुद का कम लगता है
बहका बहका सा जाने क्यों मौसम लगता है

खुशियों के बाजारों में रौनक तो रहती है
दर्द भरे खाली हाथों में तो गम लगता है

एक समय था जब उसकी बाहें फौलादी थी
बोझ तले जिम्मेदारी के बेदम लगता है

बाहर से पानी का झरना सबका होता है
प्यासे को तो लेकिन अपना हमदम लगता है

सुबह सबेरे भोर का तारा डूब गया लेकिन
चाहने वालों को दिन में गहरा तम लगता है

बुझे हुए मन वाले को तो खुशी नहीं भाती
जश्ने महफ़िल में भी उसको मातम लगता है

काव्य सृजन करना इतना भी सरल नहीं होता
सृजनहार ही जाने कि कितना श्रम लगता है

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