उलझन
ये उलझन एक ऐसी पहेली हैं।
कभी कभी लगती मुझे मेरी सहेली हैं।।
ये हर पल साथ मेरे रहती हैं।
मैं जितना इसको सुलझाती है।
ये उतना उलझती जाती है।।
कभी किसी को कुछ ज्यादा कह जाती हूं।
फिर उलझन मे फंस जाती हूं।
फिर अपनी गल्ती समझकर उलझन से निकलती हूं।।
ये कैसे हो गया क्यों हो गया ।
अजीब सी उलझन आती है।
मेरे लबो से निकले शब्दों को ।
समेटते समेटते उलझ जाती हूं।।
हर समय ये डर कांटे।
कहीं कोई नाराज न हो जाए।
सबको खुश करते करते ।
फिर भी उलझन आती हैं।।
कभी मैं सही हूं कभी मैं गल्त हूं।।
ये सुन सुनकर मैं उलझती हूं।।
सही गल्त का तालमेल मुझे समझ नहीं आता हैं।।
खुद को समझते समझते मैं उलझन मे फंस जाती हूं।।
एक उलझन सुलझाती हूं तो दूसरी खडी हो जाती हैं।।
ऐसी उलझनों को समेटते समेटते मेरी आंखें भर जाती हैं।।
कृति भाटिया।।