उलझनें_जिन्दगी की
उलझनें_जिन्दगी की
(सुशांत सिंह राजपूत)
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जहां की खुशियाँ चुराने चले थे ,
मगर आँखों ने छल किया ।
सुधा की खोज में निकले थे चाँद तक,
मगर हलाहल ही मिला।
खुशबू फैला था जो चहुंओर ,
वो सांसों को पसंद नहीं ।
नजरों को पसंद था जो ,
उसे दिल ने इन्कार किया ।
मोहब्बत निभाने को अब,
फरिश्ते उतरते हैं धरती पर कहाँ।
गुनहगार किसको कहे ,
गुनाह तो करते हैं सब यहाँ ।
उलझनें बढ़ती गई दिन-ब-दिन ,
चैन-ए-सुकून था भी कहाँ ।
जो अपने थे दिल में कभी ,
अब लगते थे,पराये वो यहाँ ।
उल्फत के तराने गाते रहे यूँ जीवन भर ,
मगर अल्फाज खामोश ही रहे ।
गमों को भुलाने की कोशिश की तो ,
अरमां सुलगते ही रहे ।
मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – १८ /०६ /२०२२
आषाढ़, कृष्ण पक्ष,पंचमी ,शनिवार ।
विक्रम संवत २०७९
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