उलझनें”
लहरों पे हवाओं के रुख,
पहचान लेता हूँ,
तूफानों का रुख बदलकर ही,
दम लेता हूँ,
आग कितनी भी सीने में,
सुलगे मगर,
फोटो खिचाने के लिए,
अक्सर मुस्कुरा देता हूँ,
उलझनें तो बहुत हैं,
ज़िन्दगी में मगर,
मैं उन्हें अक्सर हंसी में,
उड़ा देता हूँ,
क्यूँ नुमाईश लगाऊँ ?,
मैं अपनी परेशानियों की,
लोगों को मैं अक्सर,
बातों – बातों में टाल देता हूँ,
ज़िन्दगी बहुत छोटी है,
उलझनें ज़्यादा,
मैं अक्सर उलझनों को,
विराम देता हूँ,
उलझनों का बोझ,
काँधे पे उठाये,
कब तक चलता,
उन्हें अक्सर राह में,
उतार देता हूँ,
हद से ज़्यादा उलझनें,
आ जाती हैं जब पहलूं में मेरे,
मैं अपने पहलूं को अक्सर,
तब झाड़ देता हूँ,
ज़िंदा लाश बन जीता रहा,
उलझनों को ढोये,
उमंग जगती जीने की तब,
मैं उन्हें अक्सर कब्र में,
गाड़ देता हूँ,
अ ! उलझनों अब तो छोड़ दो मेरा दामन,
तुम्हें भी पता हैं, सुकून की ज़िन्दगी,
जीने की खातिर “शकुन”,
मैं ग़मों के साये अक्सर वार देता हूँ।
– शकुंतला अग्रवाल, जयपुर