उलझनें
उलझनें
वक्त बेवक़्त मन उलझनों में उलझा हुआ,
इधर उधर कुछ न कुछ तलाशता।
कुछ पाने की चाह ,कुछ खोने का गम,
कुछ कर दिखाने की दिली तमन्ना ढूंढता।
गुजरते हुए लम्हों में इन्हीं ख्यालों में गुमशुम सा ,
हर दिन हर पल एक नई बात की उलझनें सुलझाता।
क्या ,क्यों ,कब ,कैसे, क्या होगा.. ?
यही प्रश्न मन मस्तिष्क पे चलता रहता।
न जाने क्यों ये उलझनें सुलझती ही नहीं ,
दिन महीने साल सुलझाने की कोशिश में उलझे रहते।
अंधकार से प्रकाश की ओर नई दिशा नई सोच लिए हुए ,
उलझनों को सुलझाने नसीहतें ढूंढ़ते ही रहते।
शशिकला व्यास ✍