उम्र ढल गई सुलझाते सुलझाते!
जिंदगी के अनसुलझे पहलुओं को,
सुलझाते सुलझाते, उम्र ढल गई,
वो इतने थे उलझे हुए कि,
उम्र ढल गई सुलझाते सुलझाते!
ऐ जिन्दगी तुझे क्या थी ऐसी पड़ी,
जो तु आकर उससे उलझ पड़ी!
ये जन्म जो मिला था, उसका लुत्फ ही उठा लेती,
जिंदगी के झंझटों से,स्वयं को बचा लेती!
करती अपने मन की, अपने तन की,
सांसारिक बंधनों में,क्या थी उलझने की,
इस मोह माया में क्या पड़ी थी मचलने की!
अकेले ही आये थे, अकेले ही है जाना भी,
क्या लेके आया था,क्या है कुछ साथ ले जाने की,
फिर क्यों नहीं चाही,
अकेले ही अपनी हस्ती बनाने की!
ना अपने पराए का कोई भेद रहता,
ना किसी जीने मरने का कोई खेद रहता,
अब झेलता जा, जो हो रहा है,
अब अंतिम समय में क्यों आंखें भिगो रहा है!
ये तो होना ही था,ये होता रहा है
ये जमाना यही सब कुछ ढोता रहा है!
बोए हैं जो कांटे,वो ही अब चुभने लगे हैं,
तू अब तक कांटे ही तो बोता रहा है!
तुझे जागना था, अपनी हस्ती के लिए,
तू ना जाने क्यों कर सोता रहा है!
इतनी उलझने उठाली अपने सिर पर,
उम्र ढल गई, सुलझाते सुलझाते अब क्यों रो रहा है!