उम्र खेलने की
** गीतिका **
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उम्र खेलने की है लेकिन, बोझ काम का भारी।
देख रही है चुपके-चुपके, यह सब दुनिया सारी।
मासूमों की कौन सुनेगा, कानून हुआ अन्धा।
भ्रष्ट व्यवस्था के कारण ही, बढ़ी खूब बेकारी।
कौन कहेगा इन बच्चों को, आओ मिलकर खेलें।
विकट स्थिति में काम कर रहे, कैसी है लाचारी।
सस्ती मजदूरी के कारण, खूब हो रहा शोषण।
मजबूरी का बोझ उठाते, किस्मत नन्ही हारी।
पैसे को लेकर सब पागल, नैतिकता भूले हैं।
मानवीय सँवेदनाएं सब, आज गयी है मारी।
आंखें खोलें जब भी देखें, बच्चों को श्रम करते।
अपने अंतर्मन में झांकें, कुछ कर लें तैयारी।
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-सुरेन्द्रपाल वैद्य, ०९/०६/२०२३