बेटी की विदाई
उम्र की शाम हो गई थी, बस रात ही बांकी थी
इसी आशा में कि अब कम होगी महंगाई
लेकिन कब , किसी ने भी इसकी हद नहीं बताई
जाने कहां से चली आई, किसने इसको रह बताई
ऊपर भी गई, नीचे भी आते इसे देर कहां लग
गरीबों कोपिस गई, उसके नसीबों को घिस गई।
बचपन जवानी में, बुढ़ापा मरघट की ओर ले गई
बिना रुके ले गई, अंधेर नगरी में, बेसहारा छोड़ गई
जहां न वस्तु का, न व्यक्ति के जुबां का कोई मोल नहीं
शुरू जो हुई महंगाई की सफर,कहां से कहां पहुंच गई? दूल्हे का बाज़ार कम होगा, रुपयों की मांग कम होगी
छोटी -सी बेटी हमारी, देखते ही देखते बड़ी हो गई।
जिसने बुलाया, जहां बुलाया, रैली में, रेला में
प्रदर्शन में, प्रदर्शनी में,सभा में, सम्मेलन में
लाडो के पापा के साथ उसकी मम्मी भी जाती थी
कसमें ,वादें, विकास की बातों को आवाज भी थी
जनता, जनतंत्र, देश, अनुदेश, सबकी राम कहानी सुनी
एकबार नही, हर बार सुनी,महंगाई गई, गई महंगाई।
दो वर्ष पहले लाडो की ,जिस लड़के से हुई सगाई
किसी नेता के बने हैं अनुनायी, पा रहे हैं तन्हाई
उनको जिताकर नौकरी पाना है, खुशहाल रहना है
मां की सेवा के लिए जल्द ही शादी भी करनी है
नहीं दिए रोजगार, नहीं किए पैरवी,कर रहे हैं बेबफाई
क्या मार देगी महंगाई? क्या मार ही देगी महंगाई?
वक्त बहुत कम बचा है, अस्वस्थ भी रहने लगा हूं
शायद इस वर्ष भी, लाडो रह जायेगी कुंवारी
कुछ भी नहीं हुई घर में विवाह की कोई तैयारी
न होगी हथेली पीली, न भर सकेंगी मांग में लाली
बाजार में भी बढ़ गई है कितनी अब दूल्हे की महंगाई
कैसे कर सकेगा अभागा? इसबार भी बेटी की विदाई।
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स्वरचित घनश्याम पोद्दार
मुंगेर