उम्रभर…
जाने कहाँ खो गई
मंजिल मेरी
जाने कहाँ खो गया
मेरा वो सपनों वाला घर
ना जानें अब
किस राह पर हूँ मैं
न जाने किस दिशा में
खो गया मेरा शहर
तन्हा- तन्हा सी
रहगुजर हूँ मैं
किससे पूछू राह अब
जाऊँ किधर…
कुछ मुसाफिर हैं
जो शायद मुझसे पहले
इस राह से गए इधर
असमंजस में हूँ
चलूँ या रुकूँ मैं
शाम से घिर आई यादें
छिप गया यूँ ही दिनकर
इससे पहले की अंधेरों में
खो जाऊँ मैं
कोई रोशनी तो आए
मुझे नज़र
मन ने कहा
अब यहीं रुक जाऊँ मैं
विश्वास कहता
अब भी अटल हूँ मैं
इसे मेरी जीत कहो
या हार तुम
पर मैं खुश हूँ
जानती नहीं क्यों
हूँ मगर
शायद सपनों का घर था
इसलिए खो गया कहीं
नींद से खुलते ही नजर
फिर ना कोई स्वप्न
आ जाए ये सोचकर
जागते रहेंगे यूँ ही उम्रभर…
-✍️देवश्री पारीक ‘अर्पिता’