उम्मीद
सुनिए!
आपने कहा था एक दिन!
कि आदमी को उम्मीद का दामन
यों ही नहीं छोड़ देना चाहिए!
क्योंकि……
पतझड़ में झड़ जाते हैं
पुराने पत्ते!
सुबह खिले फूल,शाम को
मुरझा जाते हैं!
बाल सूर्य, परवान चढ़ता है,
ढलता है, और छिप जाता है!
धीरे-धीरे घिरती, काली और
डरावनी रात के बीत जाने पर,
उजाले में सृष्टि निखरती है!
घिरते हैं श्याम घन, आपदाओं की मानिंद
बरस पड़ते हैं; और
धरा के तप्त हृदय को
शीतल कर,खो जाते हैं अनंत में!
आते हैं और चले जाते हैं
दुःख तथा निराशाएं भी!
समय के अनवरत पथ में
आते हैं अनगिनत मगर
विचलनकारी, उतार-चढ़ाव!
ईंधन के चुक जाने तक,
चलती है न फिर भी गाड़ी
जिंदगी की!
ये बात,
बहुत मायने रखती है
हारे को हिम्मत देने के लिए!
मैं आज भी,
चल रही हूं
उसी पथ!
ढल रही हूंँ,सांचे में समय के,
निखरने के लिए!
क्योंकि अभी भी
हिलती हैं शाखें कुछ कोंपलों वाली
हवाओं के साथ बूढ़े बरगद की!
खिली हैं कलियां
कितनी ही,
आशाओं के आँगन में,
फूल बन, बिखरने के लिए!
विमला महरिया “मौज”