उपेक्षित फूल
कवि राज कुछ करो कविता ,
निकालो मन मद सरिता ।
शायद प्रकृति गई कुछ भूल,
कितने कांटे सिर्फ एक फूल।।
फूल उपेक्षित है यह फूला,
झूम रहा अकस्मात ही झूला।
विगत जीवन याद इसे है,
हुआ प्रभंजन याद इसे है ।।
पिता हुआ करता लता का राजा ,
विगत दुख हुआ फिर ताजा।
मां फूल संग अब भी मुरझाई ,
समस्त पथिक देखे मन माही ।।
किया प्रश्न मूर्ख क्यों अकेला,
मौसम के संग यह नहीं खेला।
हम भी तो खेले थे झूला ,
फूल अकेला बिछड़ा मेला ।।
हृदय मौन विलाप सुमन का ,
अकेला ही शंकित चमन का।
पथिक देख सोचे मन माही,
समस्त दिशाएं मची गाह त्राहि॥
हुई मनन ग्लानि पूछा जिस से ,
याद हुए फिर पिछले किस्से ।
कांटे ही आए अब हिस्से ,
पास गांठ नहीं रे पैसे ।।
तोड़ माली ले गया फूल को,
छोड़ गया सिर्फ वहां सूल को ।
सूल सूल ही बाकी रह गई ,
हाथ बिन जैसे राखी रह गई।।
फूल की तरफ देखा किसी ने ,
हतोत्साहित मन उत्साहित इसी में।
शायद सोचा आई फिजा ,
क्योंकि बीत चुकी है खिजा।।
सुन आहट तितली की फूल,
चन्द असे गया दुःख भूल।
शायद सोचा होगा आएंगी फिजा,
क्योंकि अब बीत चुकी है खिजा।।
सतपाल चौहान
लाखन माजरा रोहतक।