उपभोग की वस्तु “औरत”
कला और साहित्य दोनों ने औरत को निखारने के नाम पर उसे नंगा किया, बजाए इसके की वो उनमे आत्मविश्वास भरता, उनके भीतर छिपी हुई कुशलता को निखरता, उसने उसके शरीर को चुना और उसे एक वस्तु बना कर पेश किया, उपभोग की वस्तु..
जैसे किसी कहानी की नायिका जिसकी आँखें हिरनी सी होंठ गुलाब से और बाल काले घने बादलों की तरह, कभी किसी ने किसी कुरूप नायिका की कल्पना नहीं की. जिसके नथुने फैलें हों काले होंठ, दांत बाहर निकले हुए..
अब बात आती है कला की तो मूर्तियां गढ़ने में भी औरत को निखारने के लिए उसकी शारीरिक सुंदरता का ही ध्यान रखा गया, जैसे आंखे बड़ी, सुंदर शारीरिक बनावट और शरीर के अंगों का उतार चढ़ाव सामान्य से अधिक।
ज़्यादातर या यूं कहूँ की ऐसी चीजों से साहित्य और कला भरी पड़ी है.. बहुत कम उदाहरण मिलेंगे जो औरत को औरत बना के पेश करें जैसे उनकी सोच, उनका अपना नज़रिया, उनका वात्सल्य, मातृत्व उनकी इच्छाशक्ति, उनके समर्पण उनके स्वाभिमान और उनके बलिदान की कल्पना कर के उन्हें प्रस्तुत किया गया हो ये या तो उनके वास्तविक जीवन पर आधारित कहानियां हैं या कुछ इक्का दुक्का लोगों ने इस विषय पर इन स्त्री को भोग वस्तु न बना के उनकी वास्तविकता को लिखा हो,
आज जब हम टी वी के विज्ञापनों को देखते हैं तो असहज हो जाते हैं जबकि बहुत लोग इस ओर ध्यान नही देते की उनमे भी औरतों को बस स्तेमाल करने वाले अन्य वस्तुओं की तरह परिभाषित कर रहें जो जैसे बस लोगों की शारीरिक कुंठाओं को शांत करने के लिए ही बनी हो
और नई पीढ़ी इसे अपनाते हुए इसे अपने जीवन मे उतार रही है तो आप उन पर सवाल उठाते हैं उनके चरित्र को लांछित करते हैं जबकि आप अपने परिवेश में होने वाले इन अवाँछित तत्वों पर सवाल नही उठाते… और पुराने ज़माने का रिकॉर्ड शुरू कर देते हैं कि तब स्त्रियों में लज्जा और मर्यादा थी.. जब आप विज्ञापन में स्त्रियों की उपस्थिति एक भोग की वस्तु के रूप में कर सकते हैं तो उसका अनुसरण करने वालियों पर क्यों उंगली उठाते है
या तो आप अपनी सोच बदलें या इस समाज मे होने वाली असामाजिक गतिविधियों को…