उन्नीसवाँ दिन
उन्नीसवाँ दिन
सूर्योदय की बेला में
पेड़ के नीचे सुस्ताते
कृष्ण – अर्जुन
अधमुंदी आँखों से
देख रहे थे
जाते हुए अश्वत्थामा को
कि यकायक
कृष्ण ने कहा
‘ देखो पार्थ , वह कलयुग जा रहा है
द्वापर में
जीवन मूल्यों से
बड़े हो उठे थे
जीवन के स्वार्थ
भावनाओं को साधने वाली
हमारी सभ्यता
भावनाओं की दास हो उठी थी
और हम
उस उमड़ती बाढ़ को
रोक नहीं पाए थे ।’
‘ प्रभु , आपकी ऑंखें नम हैं ? ‘
‘ हाँ , अर्जुन
विचलित हूँ पहली बार।
दिशाहीन होती इस सभ्यता का
प्रतिनिधित्व
अब ईर्ष्या और असुरक्षा से लदा
यह कुंठित द्रोणपुत्र करेगा
अब
वह युद्ध के समय
तुम्हारी तरह
प्रश्न नहीं उठाएगा
अपने स्वार्थ को
अधिकार समझ
अहंकार से थरथरायेगा
वह जानेगा तो सबकुछ
पर मानेगा कुछ भी नहीं। ’
सूरज चढ़ आया था
‘ चलिए केशव ‘
अर्जुन ने कहा
‘ हाँ , चलो पार्थ
प्रयत्न अभी शेष हैं। ”
शशि महाजन – लेखिका