उधेड़बुन
मन में चलते विचारो से,
कभी कभी हूँ सहम सा जाता।
ख़ामोशी की चादर तले,
बात करने से हैं कतराता।।
ग़र पूछ ले कोई हाल मेरा,
झूठी मुस्कान दिखा बच कर निकल जाता।।
मैं नित नए नए लोगो से मिलता,
पर उनके मन को पढ़ ना पाता।
क्यूंकि हर कोई सदा मुझसे,
अपने मतलब का ही सौदा कर जाता।
और पीछे झूठी मुस्कान,
संग विदा हो जाता।।
क्या कोई अपना और क्या पराया,
अपने मन की बात किसी को बता ना पाया।
ईश्वर ने ना जाने कैसा खेल रचाया,
मैंने खुद को सदा एक जाल में उलझा पाया,
पर इस झूठी मुस्कान के,
जाल से बाहर का रास्ता खोज ना पाया।।
कैसे सुलझा लूँ ,
ना हैं कोई ऐसी युक्ति।
इसलिए कर लेता हूँ मैं,
कभी कभी शब्दों से अभिव्यक्ति।
लिखने से मन को आता हैं थोड़ा सुकून,
पर ये तो हैं जस की तक मेरी उधेड़बुन ।।
डॉ. महेश कुमावत