रिश्तों की डोर
रिश्तों की डोर
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पीहर छोड़ चली आई मैं, किस निर्मोही के संग,
पी की बतिया,पी संग रतिया सब हो गई है भंग।
वो कातिल अदाएं, वो मासूम शरारतें,
क्यों रुखसत हुई सब, वफा की वो बातें।
सालोंसाल बीता यौवन,करुँ अब किस अन्जाने के संग…
पीहर छोड़ चली आई मैं,किस निर्मोही के संग !
स्नेह पिया का पाकर खुश थी,
आहट पाकर मचल जाती थी,
वो भ्रमरगान हर पुष्प पर करता,
मकसद समझ मैं न पाती थी।
हम रोती बस विरह में उनकें,
उसने तो प्रेम छलावा किया,
हम समझी जन्मों का बंधन,
उसने तो बस मधुपान किया।
उजड़ जाएं उनके नवप्रीत के सपने,नवतरुणी के संग…
पीहर छोड़ चली आई मैं, किस निर्मोही के संग !
प्रेमसौंदर्य को समझ न पाया,
चपल चौकड़ी भरता मन में,
भावविदीर्ण हो बिखर जाए जो,
नयनों की इक मृगतृष्णा में।
जुल्म प्रीत का किया है उसने,
घिर भावशून्यता चहुँओर,
होती क्या है इतनी नाजुक,
पिय संग रिश्तों की डोर।
झूठी थी वो स्नेह पिया की, काश वो आनंद उमंग…
पीहर छोड़ चली आई मैं, किस निर्मोही के संग !
नारी सुलभ गुण करुणा का,
दया भाव में बह जाती,
सपनें बुनती जज़्बातों का,
तनिक नहिं शक कर पाती।
झूठे प्रेम शिकारी बनकर,
आता कोई पाषाण हृदय,
विचलित करता प्रेमजाल में,
याचक बनकर युवक निर्दय।
स्मृतिपटल से विस्मृत हो जाए ,अब वो मुलाकात प्रसंग…
पीहर छोड़ चली आई मैं, किस निर्मोही के संग !
खोकर धैर्य अधीर बना,
फिर मायापाश में फंस गया वो,
मेरे संग अंतरंग पलों का,
कैसा इंसाफ किया है वो।
मांग उजड़ गई कह नहीं सकती,
मांग बिछुड़ गयी कहती मैं,
किस पाथर संग नेह लगायी,
बाबुल की पसंद निभाती मैं ।
क्यों सौंपा दिल, नजरों के भरोसे उस निर्दयी के संग…
पीहर छोड़ चली आई मैं, किस निर्मोही के संग !
किस पाथर संग नेह लगायी,
बाबुल की पसंद निभाती मैं….
मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )