उदास घर
दिल्ली पहुंचने पर
बंद पड़े दरवाज़े पर
नहीं कर रहा था कोई इन्तजार
सूखे हुए कुछ पत्ते
और कबूतरों की बीठ
सीढि़यों को ढाँपे हुए थीं…
न सत्कार में जुड़े हाथ
नमस्कार में थे
न किसी का आगमन
न ही कोई हलचल
किसी के लिए भी घर में
नहीं बन रही थी चाय
न ही डाक-बक्से में कोई अपनी
चिट्ठी उस पते पर डाल रहा था
मोहल्ले के बच्चे
वापस लौटने पर ज़रूर खुश थे
क्यूंकि अक्सर रविवार को मिलते थे
उन्हें मुझसे खाने को कुरकुरे
अपने बर्तनो के साथ
रसोईघर में एक बुझा हुआ चूल्हा
जो कर रहा था सच्चे दिल से इंतज़ार
चुप्पी एक आवाज़ थी
जो कमरों में बराबर
गश्त लगाती हुई
धुल-मिटटी
बराबर सक्रिय थीं फ़र्श पर…
मेरे ठीक सामने
ठहरा हुआ था
राख जैसी हवा का डंक
दरवाज़ों का बंद होना लाज़मी था
क्यूंकि चाबी कोई और ले गया था…
खोल सके कोई उन्हें
मेरी ख़ुशी के लिए
हमने सुनी ख़ुशी
जो ख़ुशी मेरे आने से घर में जगी
मैंने चाय बनाई
जो निस्सन्देह बहुत स्वादिष्ट थी
मोहल्ले के
बच्चों के साथ आज बहुत दिनों बाद खेला
चूल्हे पर उतरती हुई गर्म रोटी को सूँघा
और
फिर कर ली इस प्यारे से घर को
बंद करने की तैयारी
मानो घर की दीवारें रो रहीं हैं
अपने आप को तनहा पाकर….
सुनील पुष्करणा