उदासीनता के शिखर श्रेष्ठ ने, यूँ हीं तो नहीं अपनाया है।
उदासीनता के शिखर श्रेष्ठ ने, यूँ हीं तो नहीं अपनाया है,
भावनाओं की जलती चादर ने, जलाकर जो भस्म बनाया है।
ना अतीत का दुःख, ना भविष्य की चिंता, ऐसा सयंम जो पाया है,
संघर्षों की नग्न कटार पर, पग ने यूँ रक्त बहाया है।
सरायों की अपरिचित छतों ने, नीदों को पूरा करवाया है,
घर की दहलीज की खोज ने यूँ, सघन वीरानों में भटकाया है।
मुस्कुराहटों का नकलीपन भी, अब हमें देख मुस्काया है,
आँखों में बसे अश्रुओं को यूँ, पीड़ा के ताप ने सुखाया है।
अन्धकार की स्याह सतह ने, अस्तित्व को जो चमकाया है,
गर्दिशों के जंगल से लड़कर, अपनी राहों को पाया है।
आत्मसम्मान की सौंधी महक ने, साँसों को तब महकाया है,
हृदय के टुकड़ों को विखंडित कर जब, तलहटी में सागर के बहाया है।
शब्दों ने श्वेत आवरण में, सुकून का दृश्य जो दिखाया है,
निःशब्दिता की खाई में जब, खुद को बेहोशी से जगाया है।
उड़ानों की तीव्रता ने जो, हवाओं से नए पंखों को चुराया है,
कटाक्षों की पगडंडियों पर, बरसों तक वक़्त बिताया है।