*उदघोष*
उदघोष
डॉ अरुण कुमार शास्त्री, एक अबोध बालक ?अरुण अतृप्त
आईना हूँ ठोकर से टूट जाऊंगा ।।
बिखरा जो एक बार जुड़ न पाऊँगा।।
मुझसे मेरे बजूद के मानी न पूँछना ।।
हरएक घटना तो मैं आपको सुना न पाऊँगा ।।
देखो सखी अब के सावन में झूलेंगे झूला ।।
मैं पेड़ पर चढूंगा तुम नीचे से रस्सी पकड़ा देना ।।
देकर बलेटा रस्सी को फिर मैं गांठ पक्की लगाऊँगा।।
तुझको लगे ना चोट कोई ये सुनिश्चित कराऊँगा ।।
हालिया हालात से कुंठित मानसिकता हो गई।।
स्वार्थ सिद्धि के चलते मानवता भृष्ट हो गई ।।
अभ्यास नही था मुझको किंचित भी इस बात का।।
ऊहा पोह में पड़ा पड़ा मैं तो पूरा नकारा हो गया ।।
काम का रहा न किसी काज का रहा ।।
दुश्मन रहा अनाज का बेकार ही रहा ।।
जीवन जिया आलस्य में बोझ बन रहा
माता पिता के लिए मैं व्यर्थ ही रहा ।।
आया न काम देश के ना ही समाज के ।
पढ़ लिख के भी तंत्र मिरा ढोल का खोल ही रहा ।।
आईना हूँ ठोकर से टूट जाऊंगा ।।
बिखरा जो एक बार जुड़ न पाऊँगा।।
मुझसे मेरे बजूद के मानी न पूँछना ।।
हरएक घटना तो मैं आपको सुना न पाऊँगा ।।
चलता रहा, ये जिस्म मेरा और दुखता भी रहा ।
सैंकड़ों शिकायतों के साथ घिसटता फिर भी रहा।
इसने उसने बताई किसी किसी ने तो कई बार समझाई।
जिन्दगी ऐसी है जिन्दगी वैसी है, कुछ समझा कुछ नहीं।
जो ठीक लगा माना कुछ दिन फिर अपने ढर्रे पर लौट आया।
मैं अबोध बालक था निपट रंग किसी का मगर न चढ़ पाया।
आईना हूँ ठोकर से टूट जाऊंगा ।।
बिखरा जो एक बार जुड़ न पाऊँगा।।
मुझसे मेरे बजूद के मानी न पूँछना ।।
हरएक घटना तो मैं आपको सुना न पाऊँगा ।।