उँगलियाँ मात्र गिनती हैं।
समेटे हुए पल उसने जूड़े में बाधा है।
इसलिए वो अब बाल खुले रखती नहीं ।
बकबक करती घूमती थी जो आंगन में।
सिर्फ सुनती है किसी को कुछ कहती नहीं ।
उँगलियाँ मात्र गिनती है जिम्मेवारी की।
हथेली में जगह लकीरों की भी रखती नहीं।
-शशि “मंजुलाहृदय”