इस नयी फसल में, कैसी कोपलें ये आयीं है।
इस नयी फसल में, कैसी कोपलें ये आयीं है,
उर्वर सी इस धरा को जो, बंजर करने चली आयी है।
मेघ उठते थे सींचने, पर सैलाब की दस्तक़ छायी है,
पनघट जो प्यास बुझाते थे, वहाँ तबाही की तन्हाई है।
नये परिंदों को पर यूँ मिले, की घर से हुई विदाई है,
चाहतों ने घोंसला सजाया तो, जज्बातों की आंधी मुस्काई है।
सागर तल में प्रेम है गहरा, इस आश में छलाँग लगाई है,
लहरों के गहन धोखों ने, स्वास-रहित लाश बहायी है।
अश्रु तो कब के सूख चुके, इस दाग की क्या भरपाई है,
प्रकाशमान ये आँखें, नए अंधेरों से जा टकराई है।
लम्हों के अफ़सानों ने, सदियों की सजाएँ लिखवायीं हैं,
ख़्वाहिश कुछ ऐसे भस्म बने, हवाओं ने कराई जगहंसाई है।