इस कदर मजबूर था वह आदमी …
इस कदर मजबूर था वह आदमी,
कि जिंदगी भर जिंदगी से जुस्तजू करता रहा,
न खुद कभी सोया चैन से, न जिंदगी को ही सोने दिया,
इस कदर मजबूर था वह आदमी …
कोटि कोटि आशा भरी, मधुर मधुर कल्पना,
खुद को ही ढाढ़स बंधाती, सुखद सुखद सांत्वना,
अब तक नहीं तो अब सही, उम्मीद ही करता रहा,
इस कदर मजबूर था वह आदमी …
जब कभी मायूस होता गूंज उठती सिसकियाँ,
पर पलक झपते ही मीठी नींद देती थपकियाँ,
स्वप्न में ही सारे जहाँ पर राज वह करता रहा,
इस कदर मजबूर था वह आदमी …
आइने के सामने भी जब कभी वह देखता,
कैसा होगा कल नहीं जो अब तलक है आ सका ?
किन्तु वश में कुछ नहीं था, इन्तजार ही करता रहा,
इस कदर मजबूर था वह आदमी …
प्रायः वह परनाम करता जगत के मुख्तियार को,
भूल जाता एक पल में, इस फितरती संसार को,
प्रभुलीला में हो समाहित स्पंदित होता रहा,
इस कदर मजबूर था वह आदमी …
सोचता था प्रभु करेंगे, पार नैया अब मेरी,
काट देंगे कष्ट सारे, कर कोई कारीगरी,
सोच में हो मग्न, मन ही मन मुस्कुराता रहा,
इस क़दर मजबूर था वह आदमी …
था नहीं तन्हा मगर साथी मिला कोई नहीं,
महफ़िलों में भी किसी को कह सका अपना नहीं,
अपनों की चाहत में भी वह बेरूखी सहता रहा,
इस कदर मजबूर था वह आदमी …
गर मिले तो बोल देना उस बावले बेहाल से,
कर्म बिन मिलता नहीं कुछ, सत्य है यह मान ले,
व्यर्थ ही वह अब तलक आडम्बरों में फँसता रहा,
इस कदर मजबूर था वह आदमी …
✍ सुनील सुमन