इश्क़
लबों पर खामोशी हुआ करती थी,दिल आशिक़ाना था,
मोहब्बत के पैगाम खत से आया करते थे।
वो भी क्या उल्फत थी, वो भी क्या जमाना था।।
दिल की बात कहने में अरसा लग जाता था,
महबूब को देख, पेशानी पर पसीना आता था,
वो भी क्या सादगी थी, वो भी क्या जमाना था।।
साहिल पर बैठ वक्त बिताया जाता था,
नाम लिख हाथो पर दुनिया से छुपाया जाता था।
जब सूरत को नही सीरत को सराहा जाता था,
वो भी क्या दीवाने थे, वो भी क्या जमाना था।।
जब आँखो में हया का पहरा था,
जब इस्क़ सागर से गहरा था।
जब महताब में महबूब नजर आता था,
वो भी क्या नज़ाकत थी, वो भी क्या जमाना था।।
जब इजहार का तरीका संजीदा था, जब इश्क़ रूहानी हुआ करता था,
जब मिलने का बहाना मन्दिर हुआ करता था,
वो भी क्या शराफ़त थी वो भी क्या जमाना था।।