इसी बात का दुख है —– गजल/ गीतिका
हर कोई तो मांग कर रहा है, अपने अधिकारों की।
श्रंखला टूटती जा रही है, आपसी विचारों की।।
हो रहे कर्तव्य से विमुख __ इसी बात का है दुख।
जिधर देखो उधर ,भीड़ दिखाई देती होशियारो की।।
बातों से आग उगलते — एक दूजे से हैं जलते ।
अल्फाज ऐसे उगलते जैसे जंग छिड़ी हो तलवारों की।।
सीधे सरल अनभिज्ञ की, कहां? कौन ?खबर लेता।
पेट की भूख ही नहीं मिटती ,ऐसे कई प्यारों की।।
जमघट लग जाता ,कहीं से ऊंचा स्वर लहराता।
कमी कहां है ,दिल तोड़ने वाले नारों की।।
आओ समरसता लाएं, एक दूजे के काम आए।
“अनुनय” को जरूरत है ,ऐसी ही सोच वाले यारों की।।
राजेश व्यास अनुनय