इसीलिए मै लिखता हूँ
खुद ही’ खुद के आशियाँ को क्यों जलाते फिर रहे
विश्व भर में जगहँसाई क्यों कराते फिर रहे।
है वतन ये आपका और है चमन ये आपका
तुम चमन के बागवाँ हो क्यों भुलाते फिर रहे।
लहलहाता वृक्ष है हैं डालियाँ इसकी हरी
क्यों वतन की डाल पर आरी चलाते फिर रहे।
कर्ज है तुम पर वतन का पागलों तुम जान लो
पत्थरों की बारिशों से क्या जताते फिर रहे।
गर कहा गद्दार तुमको क्या गलत है कह दिया
दुश्मनों की मौत पर आँसू बहाते फिर रहे।
विवेक प्रजापति ‘विवेक’