*इश्क़ की जुबां*
?इश्क़ की जुबां?
वो जब नज़रो के सामने होते ज़ुबान ख़ामोश होती है,
आँखों ही आँखों में दिल की दिल से बात होती है,
फ़िज़ा में हो पतझड़ दोनों के दरमियाँ बहार होती है,
क्या इश्क़ की ज़ुबान हर पल ख़ामोश होती है,
तसव्वुर में वो हर क्षण बाँहो को फैलाएँ होती है,
साथ हो जब वो मेरे शर्मो, हया से सिमटी होती है,
मिलने आएँ तो उसके चेहरे पर लाली सी होती है,
नज़रें झुकी ज़ुबान लड़खड़ाई होंठो पे अज़ीब सी मुस्कान होती है,
क्या इश्क़ की ज़ुबान हर पल ख़ामोश होती है,
उसकी ये सदैव की ख़ामोशी इंकार या इक़रार होती है,
तन्हाईयों में भी दोनों के दिल की साँसों से बातें होती है,
एकदूज़े के दर्द का अहसास धड़कनों के ज़ुबानी होती है,
क्या इश्क़ की ज़ुबान हर पल ख़ामोश होती हैं।।
मुकेश पाटोदिया”सुर”