इश्क़ का मुझ पे इल्ज़ाम है
इश्क़ का मुझ पे इल्ज़ाम है
और सूली का इनआम है
इश्क़ रुस्वा ये दुनिया करे
इश्क़ होता न नाकाम है
इश्क़ का इम्तिहां दे दिया
फ़िर हुआ क्यों वो बदनाम है
जब से पैग़ामे-उल्फ़त मिला
दिल को भी चैन-आराम है
बिक न पाया वो अनमोल कब
बिक चुका , अब जो बेदाम है
कुछ यहाँ ले रहे कुछ वहाँ
सब के होंठों पे इक नाम है
आओ बैठें नहाकर ज़रा
ज़िन्दगी की हुई शाम है
आज पी लूँ इसे होश में
साँस का आख़िरी जाम है
उसको ‘आनन्द’ करता सदा
जो भी कहता सरेआम है
– डॉ आनन्द किशोर