इश्क़ का दस्तूर हूँ
ख़्याल यारो हुस्न का मैं, इश्क़ का दस्तूर हूँ
ज़िन्दगी है खूबसूरत, इसलिए मगरूर हूँ
लोग झूठे, ख़्वाब टूटे, यार रूठा, प्यार भी
बक रहा हूँ जाने क्या-क्या, दिल से मैं मज़बूर हूँ
दिलफ़रेबी घात तेरी, दर्द में जीता रहा
अश्क़ अब पीने लगा हूँ, मैं नशे में चूर हूँ
हाय क़िस्मत क्या मिली है, तीरगी है चार सू
हर घड़ी डूबी ग़मों में, वो ख़ुशी बेनूर हूँ
कर खुदा से इश्क़ सच्चा, मोह सारे त्याग दे
लौटे मूसा ज्ञान लेके, वो पहाड़ी तूर* हूँ
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*तूर— तूर पहाड़ जहाँ हज़रत मूसा दो बार गए थे। पहली बार पवित्र घाटी में आग की तलाश में, जब ईश्वर से उनकी वार्तालाप हुई व ईश्वर ने चमत्कार प्रदान किए थे। वादी-ए-ऐमन, शजरे-ऐमन, आग, वादी-ए-मुक़द्दस, शोला-ए-सीना आदि तलमीह। दूसरी बार तब—जब मूसा अपनी क़ौम को फ़िरऔन के अत्याचार से मुक्ति दिलाकर वादी-ए-सीना में ठहरे। उस वक़्त मूसा को अपने क़ौम की रहनुमाई के लिए शरीअ’त (वो क़ानून जो भगवान ने अपने बंदों के लिए निर्धारित किया) प्रदान करने को ‘तूर’ बुलाया गया। पहले उन्हें 30 रातों के लिए बुलाया गया था फिर 10 रातों का इज़ाफ़ा कर दिया गया। 40 दिन पूरा होने पर मूसा को शरीअत प्रदान की गई और सीधे ईश्वर से वार्तालाप करने का गौरव प्राप्त हुआ।