इश्क- इबादत
दीदार से तेरे मै कैसे बंचु
यही तो बस एकलौता सुंकु
जो पल तेरी याद के बिन है गुजरा
वो पल ही मेरे जीवन से है बिसरा
तुम्हे पाने की कोशिश भला मै क्यो करूं
दिल से दिल का जुडा तार क्यो बिगड़ा
आंखो मे दिखते है तुम्हारे जो रंजो – गम
खूब पाला है यह तुमने वहम तगड़ा
देखे होंगे खूब दिवाने तुमने मगर
कौन है जो हमसे ज्यादा है पगला
इश्क तो बस एक जुबानी नाम है
हमने तो इसे इबादत है समझा
संदीप पांडे “शिष्य”, अजमेर