इश्क़
इश्क़ का क़िस्सा मोहब्बत से सुनाती हूँ
कैसे हुआ इश्क़ उसे अब ये फ़रमाती हूँ।
सर्दी की गुनगुनी सी खिलती धूप थी
खिड़की से उस रोज़ उनसे मुलाक़ात हुई
इश्क़ की हवा कुछ यूँ चली
सूरज पे एक बदली सी छा गयी
कुछ इस क़दर बदला था मौसम
इश्क़ ए बहार का दिन में रात सी आ गयी
आहिस्ता-आहिस्ता निगाहों की बात हुई
पलकों में छुपा मोहब्बत की शुरुआत हुई
एक नज़र भर ही तो देखा था हमने
इश्क़ की रिमझिम बरसात हुई
ठंड में भीगे हुए थे हम काँपती साँसों में
एक अजीब सी चाहता की गरमाहत थी
इंतज़ार था उनका उस गुनगुनी धूप सा
जो अचानक से बादल में छुप गयी
बरसकर बदली भी अब छठ रही थी
धूप भी अब उसकी खिड़की पर खड़ी थी
मुस्कान से एहसास-ए इजहार हुआ
वो ना समझे ना हम कैसे इशारों में इश्क़ हुआ