इश्क़, तरसा हुआ बनाऊँगा
इश्क़, तरसा हुआ बनाऊँगा।
ग़म को, सहता हुआ बनाऊँगा।
इक नया सा मकान, तो होगा
जो, मैं गिरता हुआ बनाऊँगा।
नक्श-चेहरा बसा, था आँखों में
सो, वो रोता हुआ बनाऊँगा।
देख सूरज कि, उस जलन को मैं,
अ’क्स, जलता हुआ बनाऊँगा।
कल के जिस इंतिज़ा में, बैठा है
कल तो, बीता हुआ बनाऊँगा।
इक घड़ी हाथ पर तो होगी, और,
वक्त ठहरा हुआ बनाऊँगा।
बागबां, गुल, खिला के तोड़ेगा
गुल जो, मुरझा हुआ बनाऊँगा।